मोहन लाल सुखाड़िया को इंदिरा से अदावत के चलते 17 साल बाद कुर्सी छोड़नी पड़ी. |
मोहनलाल सुखाड़िया: वो सीएम जिसकी गांधी-नेहरू परिवार की तीन पीढ़ियों से अनबन रही l
अंग्रेजी में एक कहावत है, “इफ विंड आर फेवरेबल, इट्स क्राइम नॉट टु सेल”. 1954 में फेवरेबल विंड्स की मदद से मोहनलाल सुखाड़िया मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे. लेकिन अगले पांच साल में उन्होंने खुद को सियासत के बड़े खिलाड़ी के तौर पर स्थापित कर लिया. पार्टी के भीतर ओल्ड गार्ड्स और पार्टी के बाहर सामंतो के विरोध पर वो काबू पा चुके थे. इस बीच 1962 में महारानी गायत्री देवी को काबू में करने की कोशिश में वो नाकाम रहे. उन्होंने कांग्रेस का प्रस्ताव ठुकराकर स्वतंत्र पार्टी का दामन थाम लिया. सुखाड़िया एक बार फिर से जागीरदारों के विरोध का सामना कर रहे थे. इस बीच कस्टम विभाग के एक छापे ने सुखाड़िया की ईमानदार छवि पर सवाल खड़ा कर दिया.
उदयपुर से सटे प्रतापगढ़ जिले में एक जगह है छोटी सादड़ी. यहां गोदावत नाम का एक पुराना व्यापारी परिवार रहा करता था. धंधा था सोने का. किसी दौर में मेवाड़ के महाराजा ने उन्हें काला सोना यानी अफीम का कारोबार करने की छूट भी दे रखी थी. आजादी के बाद नहीं रही. लेकिन पैसा रहा जो उस दौर में कमाया गया था.
3 जून 1965. दिल्ली से आई कस्टम की टीम ने आधी रात को छापा मार दिया. घर की तलाशी हुई. 14 गहरे तहखाने में सोना हाथ लगा. पूरा 240 किलो. कस्टम ने बिना टैक्स चुकाए सोना जमा करने का आरोप लगाया. अखबारों में हल्ला उड़ा. पकड़े गए माल में एक हिस्सा सुखाड़िया का भी है. हल्ला अखबार के जरिए विधानसभा में पहुंच गया. सीबीआई जांच हुई. सुखाड़िया को क्लीनचिट मिली. लेकिन तब तक काफी भद्द पिट चुकी थी.
गोदावत परिवार के मुखिया गुणवंत लाल गोदावत ने अख़बारों को दिए इंटरव्यू में कहा कि सीबीआई उन पर यह दबाव बना रही थी कि वो कैसे भी करके सुखाड़िया का नाम ले लें. उन्होंने नहीं लिया. उनका सोना फंस गया. 53 साल चले केस के बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. 11 करोड़ की पैनल्टी देकर गोदावत परिवार अपना सोना छुड़वा सकता है.
गुणवंत लाल गोदावत |
बिना शपथ नई विधानसभा निलंबित
1967 का चुनाव. कांग्रेस लगातार डेढ़ दशक से सत्ता में. और मुख्यमंत्री सुखाड़िया पर लगातार लगते भ्रष्टाचार के आरोप. इन सबके बीच राज्य में स्वतंत्र पार्टी तेजी से उभर रही थी. 1962 के विधानसभा के चुनाव में इसे मिलीं 36 सीटें. 1967 में यह आंकड़ा बढ़कर 48 तक पहुंच गया. उस समय विधान सभा में सीटें थीं184. बहुमत के लिए चाहिए थीं 93. कांग्रेस के पास आई 89. कांग्रेस के एक विधायक दामोदर व्यास टोंक और मालपुरा सीट से जीतकर आए. सो आंकड़ा घटकर पहुंच गया 88 पर. बहुमत कांग्रेस के पास भी नहीं.
जनसंघ के खाते में थी 22 सीटें. सदन की तीसरी बड़ी पार्टी. 8 विधायक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के थे. इसके अलावा सीपीआई के पास 1 और 16 निर्दलीय.
2 मार्च 1967, जयपुर के पास कानोता के किले में कांग्रेस विरोधी संयुक्त विधायक दल बनाने की कवायद शुरू हुई. स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष थे डूंगरपुर के भूतपूर्व महारावल लक्ष्मण सिंह. जनसंघ की तरफ से भैरो सिंह शेखावत. इसके अलावा 16 में से 15 निर्दलीय इनके साथ थे. सीपीआई के अकेले विधायक ने भी समर्थन दे दिया. गिनती पहुंची 95 पर. लिस्ट राज्यपाल डॉ. संपूर्णानंद को सौंप दी गई. सभी विधायकों की कानोता फोर्ट में बाड़बंदी कर दी गई.
4 मार्च 1967. राज्यपाल डॉ. संपूर्णानंद ने बहुमत ना होने के बावजूद कांग्रेस को सरकार बनाने का न्योता दे दिया. उदाहरण दिया गया मद्रास स्टेट का. कहा कि सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देना गलत नहीं. राज्यपाल के फैसले के खिलाफ स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ ने मोर्चा खोल दिया. कानोता से विधायक सीधे ले जाए गए जयपुर के माणक चौक. मंच पर 92 विधायक. सबने संयुक्त विधायक दल को समर्थन देने की बात कही. मंच पर मौजूद महारानी गायत्री देवी ने ऐलान किया कि अगले दिन सब लोग राजभवन की तरफ मार्च करेंगे.
महारावल लक्ष्मण सिंह जिन्होंने 110 विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को सौंपा. |
5 मार्च की सुबह 11 बजे. विपक्ष के नेता राजभवन की तरफ मार्च कर रहे थे. पीछे जनता का हुजूम. जुलूस पहुंचा पांच बत्ती चौराहे पर. नेताओं ने जनता को वापस लौट जाने की अपील की. खुद गिरफ्तारी देने के लिए आगे बढ़ गए. जनता ने अपील को अनसुना कर दिया. शहर में दंगे भड़क गए. कर्फ्यू लगा दिया गया. आगरा से पीएसी की पांच कंपनियों को बुलाया गया. जैसे-तैसे हालात काबू में आए.
7 मार्च 1967. जौहरी बाजार, चांदपोल बाजार, सूचना केंद्र, सांगानेरी गेट, अजमेरी गेट कई जगह हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए. पुलिस ने गोली चलाई. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 9 लोगों की जान गई. 13 मार्च को विधायकों को शपथ दिलाए बिना विधानसभा को निलंबित कर दिया गया. सूबे में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
हुकुम सिंह का हुकुम
16 अप्रैल 1967. डॉ. संपूर्णानंद का कार्यकाल खत्म हो गया. राष्ट्रपति शासन जारी था. सरदार हुकुम सिंह उस समय लोकसभा के स्पीकर हुआ करते थे. केंद्र ने उन्हें नया राज्यपाल बनाकर भेजा. आते ही सरकार के गठन की प्रक्रिया में लग गए. दोनों पक्षों से विधायकों की लिस्ट मांगी. महारावल लक्ष्मण सिंह ने पेश की110 विधायकों की लिस्ट. इधर मोहनलाल सुखाड़िया भी 94 विधायकों के समर्थन का दावा कर रहे थे. सरदार जी ने दोनों लिस्ट मिलाई. 21 ऐसे नाम थे जो दोनों लिस्ट में थे.
उन्होंने एक-एक विधायक को अपने पास बुलाया. एक पर्ची दी. बोला कि जिसे समर्थन दे रहे हो, उसका नाम लिखकर दो. महारावल के पक्ष में आए 88 वोट. 94 वोट सुखाड़िया को मुख्यमंत्री बनवा रहे थे. लगा कि सुखाड़िया ने 6 निर्दलीय विधायकों को अपने पक्ष में कर लिया. लेकिन टूट शुरू हुई जनसंघ के खेमे से. अतरु से विधायक थे रामचरण. वो टूटकर कांग्रेस के खेमे में चले गए. यह राजस्थान में दल-बदल की पहली घटना थी. सरकार बनाने के बाद सुखाड़िया ने 11 निर्दल विधायकों को अपने पक्ष में कर लिया. इस तरह राजस्थान में संविद सरकार बनते-बनते रह गई.
नहीं सुनी अंतरात्मा की आवाज
1969 का राष्ट्रपति चुनाव. नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेसी के आधिकारिक उम्मीदवार. सामने खड़े थे तत्कालीन उप-राष्ट्रपति वीवी गिरी. गिरी निर्दल थे और उन्हें इंदिरा का समर्थन हासिल था. इंदिरा गांधी प्रधानमन्त्री थीं. उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव से पहले वाली शाम को बड़ी भावुक अपील की. राष्ट्रपति चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की. वीवी गिरी करीबी मुकाबले में चुनाव जीत गए. कांग्रेस दो टुकड़ो में टूट गई. इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को कांग्रेस(आर) कहा गया. ओल्ड गार्ड्स की कांग्रेस को कांग्रेस (ओ). कांग्रेस (ओ) का नेतृत्व कर रहे थे के. कामराज.
इंदिरा गांधी और वीवी गिरी |
कामराज और सुखाड़िया के बीच पुरानी दोस्ती थी. लिहाजा उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी का समर्थन किया. राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के कुल 108 विधायकों में से दो मंत्रियों और 4 विधायकों के अलावा किसी ने भी वीवी गिरी के पक्ष में मतदान नहीं किया. लेकिन जब पार्टी टूटने का वक़्त आया तो हवा का रुख भांपकर इंदिरा की तरफ हो गए. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. इंदिरा के मन में सुखाड़िया के लिए जो खटास पैदा हुई, कम ना हो सकी.
1971 में देश में लोकसभा के चुनाव हुए. इंदिरा के नेतृव वाली कांग्रेस (आर) को 352 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत हासिल हुआ. कांग्रेस (ओ) के खाते में आई महज 16 सीटें. राजस्थान में कांग्रेस (ओ) का खाता भी नहीं खुला. लेकिन कांग्रेस (आई) को मेवाड़ की तीन सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा. सुखाड़िया मेवाड़ से आते थे. इसका एक कारण यह भी था कि मेवाड़ के राजघराने ने 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की खुले तौर पर मुखालफत कर दी थी. भूंड का ठीकरा फूटा सुखाड़िया के सिर पर. इंदिरा को इस हार में सुखाड़िया की साजिश की बू आने लगी. सुखाड़िया को मुख्यमंत्री बने 17 साल हो चुके थे. कांग्रेस के भीतर उनके खिलाफ खेमेबाजी तेज होने लगी. इंदिरा ने भी सुखाड़िया को ठिकाने लगाने का मन बना लिया था.
नागौर के सांसद और कांग्रेस के कद्दावर नेता नाथू राम मिर्धा उस समय इंदिरा के करीबी हुआ करते थे. राजस्थान में सुखाड़िया के खिलाफ की गोलबंदी को वही लीड कर रहे थे. वो लगातार इंदिरा पर सुखाड़िया को हटाने का दबाव बना रहे थे. इंदिरा ने सुखाड़िया को कुर्सी खाली करने के संकेत देने शुरू कर दिए. अब तक सुखाड़िया को राजनीति में आए 40 साल का वक़्त बीत गया था. कहते हैं कुर्सी छोड़ते-छोड़ते सुखाड़िया ने इंदिरा के सामने दो शर्ते रखीं. पहला कि उनका सम्मानजनक पुनर्वास हो और दूसरा नाथूराम मिर्धा को मुख्यमंत्री ना बनाया जाए. दोनों शर्तें मान ली गईं. 9 जुलाई 1971 को उन्होंने इंदिरा गांधी के नाम इस्तीफा भेज दिया जिसे स्वीकार कर लिया गया.
राज्यपाल रहने के बाद फिर से सक्रिय राजनीति में उतरे सुखाड़िया. लेकिन इंदिरा ने कोई खास तवज्जो नहीं दी |
कहते हैं कि सुखाड़िया ने इस्तीफ़ा देने से पहले अपने समर्थक विधायकों को इसकी भनक तक नहीं लगने दी. जब उनके इस्तीफे की बात सामने आई तो उनके समर्थक विधायक भागे-भागे दिल्ली पहुंचे. इंदिरा से मुलाकात की. कहा कि राजस्थान में सब ठीक है. इंदिरा ने जवाब दिया, “कई बार बदलाव ही सबसे ठीक होता है.”
यह बदलाव सुखाड़िया के लिए भी बुरा साबित नहीं हुआ. मुख्यमंत्री की कुर्सी से रुखसत हुए सुखाड़िया कर्नाटक के राजभवन भेज दिए गए. बतौर राज्यपाल. साल था 1972. इसी साल सूबे में विधानसभा के चुनाव थे. इंदिरा को डर था कि सुखाड़िया का राजस्थान में रहना भितराघात का खतरा पैदा कर देगा. सो राज्यपाल सबसे अच्छा विकल्प था. 1977 तक वो राज्यपाल रहे. पहले कर्नाटक के. फिर 1975-76 में आंध्र प्रदेश के. 1977 में तमिलनाडु के.
1977 में आपातकाल के बाद मोरारजी सत्ता में आए. सुखाड़िया ने राज्यपाल का पद छोड़ दिया. घर लौट आए. जनता पार्टी के कांग्रेस (ओ) धड़े से जुड़ गए. मेवाड़ में अभी भी पकड़ थी. 1980 के चुनाव से ठीक पहले फिर से इंदिरा की कांग्रेस में आ गए. 1980 का लोकसभा चुनाव लड़ा. कांग्रेस (आई) के टिकट पर. बड़े आराम से जीते. समर्थकों को उम्मीद थी कि इंदिरा अपने कैबिनेट में लेंगी. इंदिरा ने नहीं लिया. कांग्रेस में रहते अलग-थलग कर दिए गए.
फरवरी 1982. बीकानेर में राज्य स्तरीय पंचायती राज सम्मलेन था. राजीव गांधी उद्घाटन के लिए आए हुए थे. सुखाड़िया के कार्यकाल के दौरान ही 1959 में नागौर से पंचायती राज की शुरुआत हुई थी. वो पंचायती राज के पोस्टर बॉय हुआ करते थे. उन्हें भी सम्मलेन में बुलाया गया. मंच पर भाषण दे रहे थे कि हार्ट अटैक आ गया. बीकानेर के प्रिंस विजय सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल ले जाया गया. बचाए नहीं जा सके.
ख़बर सौजन्य - the lallantop के लिए विनय सुल्तान
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